अक्स की खोज में
जब भी अपना अक्स ढूँढने निकलती हूँ ढेरों परछाइयों से घिर जाती हूँ इन परछाइयों में किसमें मेराअक्स है यह सोच जिस तरफ भी कदम बढाती हूँ निराश हो वापस लौट आती हूँ एक-एक कर हर परछाईं को पराया कर वापस फिर मझधार में लौट आती हूं अब इस मझधार में फंसी यही सोच रही की कब मुझे मेरा किनारा मिलेगा जिंदगी की इस कड़ी धुप में मुझे मेरे अक्स की छावं का सहारा मिलेगा कहीं ऐसा तो नहीं इसी मझधार में डूब अंत को तर जाऊंगी या फिर किनारा तलाश कर उस तक पहुँच जाऊंगी मैं