कुचक्र तोड़ रही हूँ हर रोज
कुचक्र तोड़ रही हूँ हर रोज समाज तुझमे मर रही हूँ हर रोज. नारी हूँ , पथगामिनी हूँ जीवन तेरी ही अर्धांगिनी हूँ फिर भी कागज़ों में सिमट रही हूँ हर रोज. हर मुख पर सिसक रही हूँ हर रोज धारित्री हूँ , वरदायिनी हूँ माँ तेरी ममतामयी कहानी हूँ फिर भी हर आस में जी रही हूँ हर रोज प्रेम तेरे दामन में नफरत सह रही हूँ हर रोज ...वी. माया